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कविता

अँधेरे का सफ़र मेरे लिए है

रमानाथ अवस्थी


तुम्हारी चाँदनी का क्या करूँ मैं
अँधेरे का सफ़र मेरे लिए है

किसी गुमनाम के दुख-सा अजाना है सफ़र मेरा
पहाड़ी शाम-सा तुमने मुझे वीरान में घेरा
तुम्हारी सेज को ही क्यों सजाऊँ
समूचा ही शहर मेरे लिए है

थका बादल किसी सौदामिनी के साथ सोता है
मगर इनसान थकने पर बड़ा लाचार होता है
गगन की दामिनी का क्या करूँ मैं
धरा की हर डगर मेरे लिए है

किसी चौरास्ते की रात-सा मैं सो नहीं पाता
किसी के चाहने पर भी किसी का हो नहीं पाता
मधुर है प्यार, लेकिन क्या करूँ मैं
जमाने का ज़हर मेरे लिए है

नदी के साथ मैं पहुँचा किसी सागर किनारे
गई ख़ुद डूब, मुझको छोड़ लहरों के सहारे
निमंत्रण दे रहीं लहरें करूँ क्या
कहाँ कोई भँवर मेरे लिए है

 


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